“कैसे जाएं खुसरो घर आपने, जब गैर हो गया देस”
NRC को समझने से पहले ये जानना जरूरी है कि घर ही वो जगह है जिसका एक ख़्याल भी इंसान को दुनिया भर की तमाम आफ़तों से जूझने का हौसला देता है। एक इंसान और उसके परिवार की बुनियादी जरूरत के साथ साथ उनका सबसे अजीज़ सपना। सरकारें चाहें लाख बार कहे कि असम के लोग बेघर नहीं हुए हैं और ना ही उन्हें देश निकाला हुआ है मगर आज नहीं तो कल उनका बेघर होना तय है। अगर नहीं तो दुनिया भर में मानवाधिकारों की दुहाई नहीं दी जा रही होती और ना यह बखेड़ा होता कि अगर भारत नहीं तो फिर किस देश!
क्या है NRC मसला
असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (NRC) के संबंध में सरकार की ओर से बार बार एक ही बात कही जा रही है कि किसी व्यक्ति का नाम इसमें शामिल ना होने से यह आवश्यक नहीं हो जाता कि वह व्यक्ति विदेशी है। यह बात कही भी जानी चाहिए क्यो कि 31 अगस्त को सूची जारी होने के बाद यह बात सामने आई है कि कई बंगाली हिंदू शरणार्थियों का नाम भी इस सूची से बाहर रह गया। वहीं दूसरी तरफ 2018 में राष्ट्रीय नागरिक पंजी में शामिल ना हो पाने वालों का आंकड़ा 40 लाख से अधिक था, जबकि 2 दिन पुरानी सूची में यह आंकड़ा घटकर आधा हो चुका है जो कि सुकून तो देता है मगर सवाल भी। पहले भी सरकारों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में यह अपील की गई थी की असम के सीमावर्ती जिलों में 20% प्रतिशत और अन्य जिलों में 10% पुनः सत्यापन का कार्य किया जाएं, मगर सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य और केंद्र दोनों सरकारों के इस संयुक्त स्वर को उठते हुए ही दबा दिया था।

राष्ट्रीय नागरिक पंजी पूरे देश के लिए एक समान है जो 1951 के जनगणना के आधार पर बनाई गई थी। रजिस्टर में उस जनगणना के दौरान गणना किए गए सभी व्यक्तियों के विवरण शामिल थे। यह बहुत आम है कि रोज़ी रोटी की खोज में आम नागरिक एक राज्य से दूसरे राज्य चले जाते हैं और कभी कभी हमेशा के लिए वही बस जाते हैं। ऐसे में सूची में शामिल ना हो पाने वाले 19 लाख 6 हजार लोगों में दूसरे राज्य के लोगों का होना बहुत लाजमी है। राष्ट्रीय नागरिक पंजी जब सारे राज्यों के लिए बनाई गई थी तो सिर्फ असम की गणना को विध्वंसकारी सिद्ध होगी। साथ ही अगर हम ये ना भूलें कि असम एक बाढ़ग्रस्त राज्य है और बारिश वहां जब भी आती है लोगों का घर उजाड़ कर जाती है, ऐसे राज्य के लोगों से इतने पुराने दस्तावेजों की उम्मीद कितनी सही है!
सर्वोच्च न्यायालय की चिंता जायज़ है कि देश जिन हालातों से गुजर रहा है वहां शरणार्थियों की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश देश पर अनावश्यक भार डालने जैसा है, मगर अतिथि देवो भव और वसुधैव कुटुंबकम् का नारा देने वाले भी हम भारतीय ही है। कानूनी तौर पर हम सही हो सकते हैं पर याद रहे कि जहां कानून की सीमाएं खत्म होती है वहां से नैतिकता अपना आंचल फैलाती है।